अब एक एडिटर को मैनेजर की तरह भी काम करना होगा
प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश से विष्णु राजगढ़िया की बातचीत
मीडिया विमर्श ( मार्च - मई, 2007)
अब एक एडिटर को मैनेजर की तरह भी काम करना होगा
प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश से विष्णु राजगढ़िया की बातचीत
मीडिया विमर्श ( मार्च - मई, 2007)
सूचना अधिकार से समृद्ध हुई पत्रकारिता
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विष्णु राजगढ़िया
मीडिया विमर्श (दिस.06 - फर.07)
http://www.inext.co.in/epaper/Default.aspx?pageno=16&editioncode=14&edate=12/23/2008
विष्णु राजगढ़िया
आजकल पोस्टमेन का इंतजार नहीं रहता। न चिटि्ठयों का। अब तो ई-मेल है। जब भी कंप्यूटर पर बैठो, पहले ई-मेल चेक करने की जल्दी। भले ही कितना इंपोर्टेंट वर्क क्यों न छूट रहा हो। ई-मेल देखने से ज्यादा जरूरी काम भला और क्या हो सकता है। इंटरनेट ने मनुष्य को घर-बैठे तत्काल पूरी दुनिया से जोड़ने की अद्भुत ताकत दे दी है। कुछ ही पलों में चाहे जितनी तसवीरें और फाइलें वल्र्ड के किसी भी कोने में बैठे आदमी को भेज दें।
पहले डाकिये के आने का एक टाइम होता था। उसके बाद नेक्स्ट दोपहर तक के लिए इंतजार खत्म। लेकिन अब तो ई-मेल के लिए हर घंटे-आधे घंटे पर इनबॉक्स चेक करना नेसेसरी लगता है। खासकर जिन लोगों का प्रोफेशन कंप्यूटर से जुड़ा है, जो घंटों कंप्यूटर पर बैठते हैं और जिनके लिए इंटरनेट यूज करना बिलकुल सहज काम हो, उनके लिए तो दिन भर में कई-कई बार ई-मेल चेक कर लेना बिलकुल नेचुरल है। उसमें भी जिन लोगों ने दो-तीन ई-मेल आइडी बना रखे हों, उनका तो कहना ही क्या।
जिनके इनबॉक्स में कोई गुड न्यूज की कोई ई-मेल आती हो, उनके लिए कंप्यूटर का मतलब बु़द्धू बक्सा नहीं बल्कि सुखद अनुभव होता है। लेकिन जिनके पास ई-मेल के नाम पर अनवांटेड मेल आते हों, उनकी परेशानी देखते ही बनती है। हर दिन आपके पास तरह-तरह की लाटरी, बिजनेस प्रोपोजल इत्यादि के लुभावने ई-मेल आ सकते हैं। ऐसे ई-मेल से टाइम का कबाड़ा होता है। इसलिए खुद ई-मेल कंपनियों ने स्पैम का एक सेपरेट फोल्डर बना दिया है। आपके नाम पर भेजी गयी ज्यादातर फालतू ई-मेल खुद ही स्पैम फोल्डर में चली जायेंगी। यह जानना सचमुच इंटरेिस्टंग होगा कि किस सिस्टम से ऐसा होता है। हालांकि कई बार आपके लिए उपयोगी और जरूरी ई-मेल भी स्पैम फोल्डर में जा सकता है। इसलिए अपन तो इनबॉक्स के साथ ही स्पैम फोल्डर को भी देखना जरूरी समझते हैं। चेक करने के बाद ही स्पैम फोल्डर को इंपटी करते हैं। वैसे भी स्पैम ई-मेल के सेंडर और सब्जेक्ट को देखते ही समझ में आ जाता है कि इसे खोलने का मतलब टाइम वेस्ट करना है।
लेकिन उस ई-मेल का क्या करें जिसका सेंडर आपका करीबी हो और सब्जेक्ट हो- मोस्ट अरजेंट? ऐसे ई-मेल को आप तुरंत खोलेंगे। लेकिन पता चला कि कुछ भी अरजेंट नहीं। उसमें तो कोई सस्ता जोक या कोई एडवाइस या शुभकामना संदेश या फिर कोई उपदेश है। बहुत से ई-मेल में कोई सब्जेक्ट ही नहीं होगा। लेकिन साथ में कोई ऐसा अटैचमेंट होगा जिसे डाउनलोड करने और खोलने में कंप्यूटर के पसीने छूट जायें। संभव है कि जिस फाइल फोरमेट या सॉफ्टवेयर में वह अटैचमेंट भेजा गया हो, उसे खोलने की सुविधा आपके कंप्यूटर में न हो। ऐसे में वैसे ई-मेल को खोलो तो मुिश्कल, न खोलो तो मुिश्कल। कई बार ऐसे ई-मेल कई-कई दिन इनबॉक्स में पड़े रह जाते हैं, अनखुले। लेकिन इन्हें भेजने वाला आपका कोई फास्ट फ्रेंड, कोई रिलेटिव, कोई कलीग हो सकता है। आपको हर बार लगेगा कि आप उस ई-मेल को न खोलकर उस व्यक्ति की उपेक्षा कर रहे हैं। लेकिन उसे खोलने से टाइम खराब होने का खतरा रहेगा।
ऐसे लोगों के ई-मेल आपके लिए मनोरंजन या ज्ञानवर्द्धन का इंस्ट्ूमेंट हो सकते हैं। लेकिन कोई जरूरी नहीं कि काम के वक्त सबके पास हमेशा टाइम हो। जबकि ऐसे ई-मेल की जरूरत से भी इंकार नहीं कर सकते। आखिर कुछ तो पास टाइम हो। लिहाजा, जो ई-मेल कोई जरूरी मैसेज या किसी प्रेिक्टकल यूज के लिए नहीं बल्कि जस्ट फोर फन या टाइम पास या गि्रटिंग्स के लिए भेजे गये हों, उनके सब्जेक्ट में इस बात को क्लीयर करना हेल्दी प्रेिक्टस मानी जायेगी। साथ ही, एटैचमेंट में हैवी फाइलें और हाइ-रीजोल्यूशन फोटो भेजने के बदले यह कलकुलेट करना जरूरी है कि कैसा एटैचमेंट भेजें जो सामने वाले के लिए प्रोब्लम क्रिएट न करे। अगर भावना में बहकर हर जान-पहचान के आदमी के पास भारी-भरकम ई-मेल भेजने के बजाय सिर्फ जरूरी लोगों के पास ईजी फोरमेट में तथा सब्जेक्ट की लीयर जानकारी के साथ भेजा जाये तो आपके ई-मेल को कई-कई दिनों तक इनबॉक्स में अनरीड मैसेज के रूप में पड़े रहने की दुर्गति नहीं झेलनी पड़ेगी। वरना कभी वह दिन भी आयेगा जब कंप्यूटर आपके करीबी लोगों के भी कचड़ा ई-मेल को खुद ही स्पैम फोल्डर में फेंक देगा।
आइ-नेक्स्ट 01-10-2008
विष्णु राजगढ़िया
आजकल नये-नये अधिकारों का जमाना है। हर इंडियन सिटिजन को आज राइट टू इनफोरमेशन मिला हुआ है. राइट टू फूड के कंसेप्ट ने स्कूल गोइंग छोटे बच्चों को मीड-डे मिल दिलाया हैं। राइट टू वर्क के एक शुरूआती एक्सपेरिमेंट के बतौर नरेगा कार्यक्रम चल रहा हैं राइट टू हेल्थ की बात हो रही है और इस दिशा में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन को एक बड़ा कदम माना जा रहा है. राइट टू एडुकेशन और राइट टू जिस्टस की भी बात जोरों से चल रही हैं ऐसे दौर में सड़क किनारे बड़ा-सा एक होर्डिंग कुछ अलग ही कहानी सुनाता मिला. लड़कियों के लिए बने किसी टू-व्हीलर के इस विज्ञापन में एक मासूम-सा सवाल पूछा गया था- `व्हाई ऑल फन फोर ब्वायज ओनली?` इसमें एक अल्हड़ किशोरी यह दावा करती नजर आ रही थी कि हमें भी मौज-मस्ती का अिèाकार मिले, यानी राइट टू फन. वाह, क्या आइडिया है। वह होर्डिंग किसी टू-व्हीलर की बिक्री बढ़ाने का एडवरटाइजमेंट मात्र ही था. लेकिन उसकी भावना आज देश और दुनिया में बह रही नयी हवा की खबर सुना रही थी. राइट टू फन के रूप में यह राइट टू इक्वलिटी की बात है. लड़कियों को भी लड़कों जितनी स्वतंत्रता मिले. जेंडर का कोई दुराग्रह न रहे. विज्ञापन चाहता है कि लड़कियां भी अब सड़कों पर मजे से टू-व्हीलर उड़ाती चलें और उस कंपनी की बिक्री बढ़े. लड़कियों के लिए टू-वहीलर की राइडिंग सिर्फ ट्रेवलिंग की जरूरत तक सीमित न रहे बल्कि मौज-मस्ती का भी पार्ट बने. क्या वाकई लड़कियों के लिए राइट टू फन का स्लोगन जरूरी है ? क्या किसी ने उन्हें सड़कों पर बाइक या मोटर चलाने से रोका है? इस सवाल के जवाब में हम कह सकते हैं कि इस मेल-डोमिनेटेड सोसाइटी ने फिमेल को सड़कों पर आने और मोटर चलाने दिया ही कब था जो उन्हें रोका जाता? आज भी छोटे शहरों, कस्बों में लड़कियां सड़कों पर साइकिल पर पैंडल मारती हैं तो मानो पुरूषों की आंखों में तीर की तरह चुभती हैं. फिर छोटे शहर हों या महानगर, हर जगह सड़कों पर वाहन चलाती वुमेन को कॉमन प्राबलम से गुजरना पड़ता है. कुछ मनचले जिनमें उम्रदराज लोग भी शामिल होते हैं, जान-बूझकर उनके रास्ते में रुकावट डालते हैं, बगल से गुजरने या पास देने या पास मांगने के दौरान टीजिंग हरकतें करते हैं. सड़क पर बाइक या कार चलाते हुए कोई वुमेन गुजरती है तो अगल-बगल खड़े लोग घूर-घूर कर देखते हैं, कमेंट्स करते हैं. लड़कियां सड़क पर ड्राइविंग करना चाहें तो गार्जियन कहते हैं कि तुम ठीक से नहीं चला पाओगी, एक्सीडेंट हो जायेगा. गार्जियन की चिंता जेनुइन है. लेकिन उनके लिए राहत की एक नयी बात सामने आयी है. देश की एक कार बनाने वाली फेमस कंपनी ने पिछले दिनों कार-ड्राइविंग का एक सर्वे करायाण् लगभग पांच हजार लोगों का टेस्ट लिया. इनमें लगभग आधी महिलाएं थी। पता चला कि लगभग पंद्रह प्रतिशत महिलाओं को अच्छी ड्राइविंग के लिए 80 प्रेसेंट से ज्यादा नंबर मिले. जबकि 80 प्रेसेंट पाने वाले पुरूषों की संख्या कम थी. साबित हुआ कि जिन महिलाओं को सड़क पर उतर कर ड्राइविंग का मौका मिला, उन्होंने पुरूषों से अच्छा परफोर्म करके दिखाया. इस सर्वे में पार्टिसिपेट करने वाली महिलाओं ने पूरी दुनिया की औरतों के लिए एक बड़ी जीत हासिल की. अब कौन कहेगा कि औरतें अपनी शारीरिक स्थितियों या सीमाओं की वजह से पुरूषों के मुकाबले खराब ड्राइविंग करती हैं. इस तरह, कार-ड्राइविंग पर अपनी इस जीत के जरिये औरतों ने एक और मोरचे पर मर्दों को पछाड़कर राइट टू इक्वलिटी की दिशा में अपनी हैसियत मजबूत की है. अब अगर टू-व्हीलर के बहाने लड़कियां राइट टू फन के बारे में सोचना शुरू करें तो हो सकता है कि उनके लिए भी उमंगों का एक नया दौर शुरू हों। यानी उन्हें भी मिले उमंगों का adhikar।
आइ-नेक्स्ट 25.08.2008 से साभार